कोई जब मुस्कुरा कर बोलता है मिरे दिल का कबूतर बोलता है ग़रज़ ही क्या है तुम को मेरे दुख से कि तेरा तो मुक़द्दर बोलता है अमीर-ए-शहर से ख़ाइफ़ न होना यहाँ अब हर सुख़नवर बोलता है मुझे शर्मिंदगी है मुफ़लिसी में मिरे दर पर गदागर बोलता है यक़ीनन मैं उसे पहचानता हूँ पस-ए-पर्दा जो अक्सर बोलता है बहुत ख़ामोश रहता है जो 'तन्हा' वो महफ़िल में बराबर बोलता है