कोई मंज़िल न कोई जादा है अब मुसाफ़िर का क्या इरादा है दिल ये कहता है चाँद निकलेगा तीरगी कल से कुछ ज़ियादा है जितने ग़म हों मुझे अता कीजिए दामन-ए-दिल बहुत कुशादा है कम सही इल्तिफ़ात-ए-दोस्त मगर मेरी उम्मीद से ज़ियादा है हम 'सुवैदा' से मिल के आए हैं फ़िक्र रंगीं मिज़ाज सादा है