कोई मौसम न कभी कर सका शादाब हमें शहर में जीने के आए नहीं आदाब हमें बहते दरिया में कोई अक्स ठहरता ही नहीं याद आता है बहुत गाँव का तालाब हमें इस तरह प्यास बुझाई है कहाँ दरिया ने एक क़तरे ने किया जिस तरह सैराब हमें झिलमिली रौशनी हर-सम्त नज़र आती है खींचती है कोई क़िंदील तह-ए-आब हमें क्या पता कौन से जन्मों का है रिश्ता अपना ढूँड ही लेते हैं हर बहर में गिर्दाब हमें दिन उलट देता है हर ख़्वाब की ता'बीर मगर रात दिखलाती है फिर कोई नया ख़्वाब हमें बे-अमाँ हम जो हुए हैं तो हमें याद आया रोज़ देते थे सदा मिम्बर-ओ-मेहराब हमें काश मा'लूम ये पहले हमें होता 'आलम' देखना चाहता था वो भी ज़फ़र-याब हमें