कोई मुझ से ख़फ़ा है इस लिए ख़ुद से ख़फ़ा हूँ उबलते खौलते मौसम के नेज़े पर रखा हूँ मिरे अंदर मिरा कुछ भी नहीं बस तू है बाक़ी तिरे अंदर बता प्यारे मैं अब कितना बचा हूँ मिरी साँसों की ख़ामोशी में कैसा शोर क्यूँ मैं कई सदियाँ गुज़र जाने पे भी ख़ुद से ख़फ़ा हूँ कुल्हाड़ी का मुझे अब डर नहीं आदत है उस की गए वो दिन मैं कहता था कोई जंगल घना हूँ मिलूँ ख़ुद से मैं क्यूँ फ़ुर्सत नहीं मुझ को तुम्हीं से मैं ख़ुद में हो के भी बस तुम में रहने की रज़ा हूँ शराफ़त को मिरी, कमज़ोरियाँ माना सभी ने मैं ख़्वाबे-ए-अम्न बुनता था लहू में सन गया हूँ मुझे मुझ तक पहुँचने में लगेंगे जन्म कितने ज़मीं से टूट कर छिटका जज़ीरा हो गया हूँ यही क़िस्मत है उन के ख़्वाब से रहना नदारद मैं जागा हूँ, मैं जिन की नींद में तकिया बना हूँ बुलाते हैं मुझे जज़्बात, एहसासात मेरे मुझे तपना है मैं 'नवनीत' होने की सज़ा हूँ