कोई नहीं जो हल्का कर दे बार-ए-सफ़र मुझ तन्हा का दोश पे है इमरोज़ का बोझ और सर पर क़र्ज़ है फ़र्दा का आँधी आए तो अंदेशा तूफ़ाँ उठ्ठे तो तशवीश एक तरफ़ से सहरा का क़ुर्ब एक तरफ़ से दरिया का किन ज़ख़्मों के टाँके टूटे किन दाग़ों के बंद खुले ख़ून है रंगत शाम-ओ-सहर की आग है मौसम दुनिया का कूचे के ख़ामोश घरों की रात से कितना ग़ाफ़िल है आख़िर माह ये शोर-ए-शबाना यारान-ए-बे-पर्वा का पेश-रवों को इस दर्जे पर और भी कुछ इनआम मिले संग-ए-मलामत कम ही सिला है मेरे दिमाग़-ए-सौदा का हम को हमारी महरूमी की क़ीमत मिलती रहती है दिल में हमारे बढ़ जाता है रोज़ इक ज़ख़्म तमन्ना का