कोई नहीं कि जिसे आश्ना-ए-राज़ करें तो क्यूँ न फिर ग़म-ए-दिल ही से साज़-बाज़ करें बना के उन को भी ख़ूगर नियाज़-ए-पैहम का वो दिन भी आए कि हम भी बुतों से नाज़ करें हिसाब हो चुका कोताह-दस्तियों का तो अब ख़याल-ए-सिलसिला-ए-गेसू-ए-दराज़ करें अगर शराब में मस्ती भी है ख़ुमार भी है तो क्यूँ न आरज़ू-ए-चश्म नीम-बाज़ करें नज़र में तुंदी-ए-तिश्ना-लबी बढ़ा ऐ शौक़ कि जिस से हर दिल-ए-मीना को फिर गुदाज़ करें हुज़ूर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ लग़्ज़िशों की पुर्सिश है लो आओ अपने भी क़दमों को सरफ़राज़ करें सफ़र शबाब का गर उज़्र था तो अब सर-ए-शाम क़ज़ा-ए-उम्र पढ़ें निय्यत-ए-नमाज़ करें