कोई रौज़न न कोई दर हुआ है लहू से तर-ब-तर ये सर हुआ है उठाता ही नहीं है फ़ोन जब से अलीगढ़ में प्रोफ़ेसर हुआ है मैं जिस से चाहता हूँ बच के रहना उसी का सामना अक्सर हुआ है गुज़ारी जिस ने है बे-रह-रवी में वही उस क़ौम का रहबर हुआ है मिरी ख़ाना-बदोशी क़ब्र तक थी गँवा दी जान तब ये घर हुआ है अभी तो शाने तक ही सर है 'दानिश' कहाँ से तू मिरा हम-सर हुआ है