कोई रेत रक़्स में मस्त थी कि हवा चली थी सुरूर से तिरे ज़ाविए पे ही घूमता हुआ आ गया कोई दूर से तुझे इतने पास से देख ले कोई अहल है न ये सहल है कभी जिस्म घुलता है आग में कभी आँख जलती है नूर से मुझे कोई फ़िक्र-ए-फ़ना भी क्या मैं तो जानता हूँ बक़ा है क्या तुझे ढूँडने से नहीं मिला मैं ने पा लिया है शु'ऊर से कोई और मुझ में हुनर न था मुझे बंदगी ने बड़ा किया उसे शहंशाह ने भी रद किया वो भरा हुआ था ग़ुरूर से मिरे कारी-गर तिरे बस में है ये हयात भी ये ममात भी तिरी कुन से है मिरी इब्तिदा मिरी इंतिहा तिरे सूर से न ही कोई नग़्मा न साज़ भी न ही ज़िंदगी का जवाज़ भी तो क्या मिट गया है 'शीराज़' भी तिरी दास्ताँ की सुतूर से