कोई सच बोल कर शाम-ओ-सहर चुप-चाप रहता है कोई सच्चाई से मुँह मोड़ कर चुप-चाप रहता है वो जिस की गुफ़्तुगू पर जान देती है हर इक महफ़िल पहुँचता है वही जब अपने घर चुप-चाप रहता है हमेशा बे-हुनर करते हैं बे-सर-पैर की बातें मगर जिस में भी हो कोई हुनर चुप-चाप रहता है छुपी रहती हैं कितनी दास्तानें इक ख़मोशी में कोई इंसान क्या क्या सोच कर चुप-चाप रहता है न हो जिस को पसंद अपनी सफ़ाई में भी कुछ कहना वो नीची कर के आँखें उम्र भर चुप-चाप रहता है हैं अब भी शहर में दो-चार घर ऐसे जहाँ 'शाहिद' बड़े बूढ़ों के आगे घर का घर चुप-चाप रहता है