कोई समझाओ दरिया की रवानी काटती है कि मेरे साँस को तिश्ना-दहानी काटती है मैं बाहर तो बहुत अच्छा हूँ पर अंदर ही अंदर मुझे कोई बला-ए-ना-गहानी काटती है मैं दरिया हूँ मगर कितना सताया जा रहा हूँ कि बस्ती रोज़ आ के मेरा पानी काटती है ज़मीं पर हूँ मगर कट कट के गिरता जा रहा हूँ मुसलसल इक निगाह-ए-आसमानी काटती है मैं कुछ दिन से अचानक फिर अकेला पड़ गया हूँ नए मौसम में इक वहशत पुरानी काटती है कि राजा मर चुका है और शहज़ादे जवाँ हैं ये रानी किस तरह अपनी जवानी काटती है नज़र वालो तुम्हारी आँख से शिकवा है मुझ को ज़बाँ वालो तुम्हारी बे-ज़बानी काटती है