कोई सुबूत न होगा तुम्हारे होने का न आया फ़न जो क़लम ख़ून में डुबोने का हर एक बात पे बस क़हक़हे बरसते हैं ये तर्ज़ कितना निराला है दिल के रोने का शुरू तुम ने किया था तुम्हें भुगतना है जो सिलसिला था ग़लत-फ़हमियों को बोने का शनाख़्त हो तो गई अपने और पराए की नहीं है ग़म मुझे उम्र-ए-अज़ीज़ खोने का 'रईस' फ़िक्र-ए-सुख़न रात भर जगाती है कोई भी वक़्त मुक़र्रर नहीं है सोने का