कोई तो शक्ल मोहब्बत में साज़गार आए हँसी नहीं है तो रोने से ही क़रार आए है एक ने'मत-ए-उज़मा ग़म-ए-मोहब्बत भी मगर ये शर्त कि इंसाँ को साज़गार आए जुनून-ए-दश्त-पसंदी बताए देता है गुज़ारनी थी जो घर में वो हम गुज़ार आए गुज़ारनी है मुझे उम्र तेरे क़दमों में मुझे न क्यूँ तिरे वा'दों पे ए'तिबार आए तुम्हारी बज़्म से आ कर वही ख़याल रहा हम एक बार गए तुम हज़ार बार आए निगाह-ए-दोस्त कोई और बात है वर्ना तू बे-क़रार करे और मुझे क़रार आए है मुतमइन भी तो किस किस उमीद-ओ-बीम के साथ वो ना-मुराद जिसे लुत्फ़-ए-इंतिज़ार आए बता गई है जो मुझ को वो बे-क़रार निगाह न कह सकूँगा अगर आज भी क़रार आए ये इम्तियाज़ है 'ग़ालिब' के बा'द 'आली' का कि जिस पे आप मरे हैं उसे भी मार आए