क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है आग़ाज़-ए-मुसीबत होता है अपने ही दिल की शामत से आँखों में फूल खिलाता है तलवों में काँटे बोता है अहबाब का शिकवा क्या कीजिए ख़ुद ज़ाहिर ओ बातिन एक नहीं लब ऊपर ऊपर हँसते हैं दिल अंदर अंदर रोता है मल्लाहों को इल्ज़ाम न दो तुम साहिल वाले क्या जानो ये तूफ़ाँ कौन उठाता है ये कश्ती कौन डुबोता है क्या जानिए ये क्या खोएगा क्या जानिए ये क्या पाएगा मंदिर का पुजारी जागता है मस्जिद का नमाज़ी सोता है ख़ैरात की जन्नत ठुकरा दे है शान यही ख़ुद्दारी की जन्नत से निकाला था जिस को तू उस आदम का पोता है