क्यूँ किसी रह-रौ से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता मौज-ए-दरिया ख़ुद लगा लेती है साहिल का पता है निशान-ए-लैला-ए-मक़्सूद महमिल का पता दिलरुबा हाथ आ गया पाया जहाँ दिल का पता राह-ए-उल्फ़त में समझ लो दिल को गूँगा रहनुमा साथ है और दे नहीं सकता है मंज़िल का पता कहता है नासेह कि वापस जाओ और मैं सादा-लौह पूछता हूँ ख़ुद उसी से कू-ए-क़ातिल का पता राहबर रहज़न न बन जाए कहीं इस सोच में चुप खड़ा हूँ भूल कर रस्ते में मंज़िल का पता आई इक आवाज़-ए-तीर और निकली दिल से उफ़ फिर न क़ातिल का निशाँ पाया न बिस्मिल का पता बाँकी-चितवन वाले महशर में हज़ारों हैं तो हों मिल ही जाएगा किसी सूरत से क़ातिल का पता उस जगह बिस्मिल ने दम तोड़ा जहाँ की ख़ाक थी यूँ लगाते हैं लगाने वाले मंज़िल का पता पूछने वाले ने ये पूछा कि क्यूँ बे-दिल हो क्यूँ और मुझ को मिल गया खोए हुए दिल का पता मौजें टकराई हुईं दुश्मन भी निकलीं दोस्त भी पीछे कश्ती को ढकेला दे के साहिल का पता रह गया है टूट कर ज़ख़्म-ए-जिगर में तीर-ए-नाज़ अब लगा लेना नहीं दुश्वार क़ातिल का पता सोख़्ता परवाने कुश्ता शम्अ फ़र्श-ए-दाग़दार दे रहे हैं रात की गर्मी-ए-महफ़िल का पता मैं वफ़ा-केश 'आरज़ू' और वो वफ़ा-ना-आश्ना पड़ गया मुश्किल में पा कर अपनी मुश्किल का पता