क्यूँ मलामत का हदफ़ गर्दिश-ए-पैमाना बने लग़्ज़िश-ए-पा से मिरी का'बा-ओ-बुत-ख़ाना बने अक़्ल के बस की नहीं बख़िया-गिरी फूलों की दर्द जिस को हो गुलिस्ताँ का वो दीवाना बने लब-ए-हिक्मत से शब-ओ-रोज़ उजाले टपके तीरा-ज़ेहनी का मगर ये भी मुदावा न बने बे-सबब शौक़ नहीं माइल-ए-अफ़साना-गरी हर हक़ीक़त की ये ख़्वाहिश है कि अफ़्साना बने रुख़-ए-जानाँ के तसव्वुर ही में रातें गुज़रीं चाँद-तारे दिल-ए-महजूर की दुनिया न बने आश्ना फ़स्ल-ए-बहाराँ ही नहीं है शायद क्या कहीं फूल कि क्यूँ सब्ज़ा-ए-बेगाना बने मैं तो हूँ शम-ए-सिफ़त-सोज़ सरापा 'शिबली' जिस को जलना नहीं आता हो वो परवाना बने