क्यूँ मिरे लब पे वफ़ाओं का सवाल आ जाए ऐन मुमकिन है उसे ख़ुद ही ख़याल आ जाए हिज्र की शाम भी सीने से लगा लेता हूँ क्या ख़बर यूँही कभी शाम-ए-विसाल आ जाए घर इसी वास्ते जंगल में बदल डाला है शायद ऐसे ही इधर मेरा ग़ज़ाल आ जाए धनक उभरे सर-ए-अफ़्लाक कड़ी धूप में भी दश्त-ए-वहशत में अगर तेरा ख़याल आ जाए कोई तो उड़ के दहकता हुआ सूरज ढाँपे गर्द ही सर पे घटाओं की मिसाल आ जाए छोड़ दे वो मुझे तकलीफ़ में मुमकिन तो नहीं और अगर ऐसी कभी सूरत-ए-हाल आ जाए उस घड़ी पूछूँगा तुझ से ये जहाँ कैसा है जब तिरे हुस्न पे थोड़ा सा ज़वाल आ जाए कुछ नहीं है तो भुलाना ही उसे सीख 'अदीम' ज़िंदगी में तुझे कोई तो कमाल आ जाए