क्यूँ मुश्त-ए-ख़ाक पर कोई दिल दाग़दार हो मर कर भी ये हवस कि हमारा मज़ार हो बढ़ जाए ग़म का सिलसिला कोहसार की तरह तूलानी गर ये ज़िंदगी-ए-मुस्तआर हो इस सैद-गाह में वही निकलेगा बच के साफ़ जो सैद सब से पहले अजल का शिकार हो उस बुल-हवस की मौत के क़ुर्बान जाइए जो फिर दोबारा जीने का उम्मीद-वार हो हस्ती का तौक़ तो है क़यामत पस-ए-वफ़ात या-रब कहीं ये मेरे गले का न हार हो यकसाँ है अहल-ए-दिल के लिए इम्बिसात-ओ-ग़म बाग़-ए-जहाँ में आए ख़िज़ाँ या बहार हो