कुछ और दिन अभी उस जा क़याम करना था यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था मता-ए-चश्म-ए-तमन्ना ये अश्क और ये ख़ाक रग-ए-ख़याल से इस को तुलूअ' करना था निगाह और चराग़ और ये असासा-ए-जाँ तमाम होती हुई शब के नाम करना था गुरेज़ करती हुई मौज आब-ए-सर पर थी और एक पल के सिरे पर मुझे ठहरना था