कुछ और रंग मैं तरतीब-ए-ख़ुश्क-ओ-तर करता ज़मीं बिछा के हवा ओढ़ के बसर करता गुल ओ शगुफ़्त को आपस में दस्तरस देता और आइने के लिए आइना सिपर करता चराग़-ए-कोहना हटाता फ़सील-ए-मुर्दा से गियाह-ए-ख़ाम पे शबनम दबीज़-तर करता वो नीम नान-ए-ख़ुनुक आब और सग-ए-हम-नाम मैं ज़ेर-ए-सब्ज़-शजर अपना मुस्तक़र करता वो जिस से शहर की दीवार बे-नविश्ता है मैं उस की शाख़-ए-तहय्या को बे-समर करता मैं चूमता हुआ इक अहद-नामा-ए-मंसूख़ किसी क़दीम समुंदर में रहगुज़र करता