कुछ बस ही न था वर्ना ये इल्ज़ाम न लेते हम तुझ से छुपा कर भी तिरा नाम न लेते नज़रें न बचाना थीं नज़र मुझ से मिला कर पैग़ाम न देना था तो पैग़ाम न लेते क्या उम्र में इक आह भी बख़्शी नहीं जाती इक साँस भी क्या आप के नाकाम न लेते अब मय में न वो कैफ़ न अब जाम में वो बात ऐ काश तिरे हाथ से हम जाम न लेते क़ाबू ही ग़म-ए-इश्क़ पे चलता नहीं वर्ना एहसान-ए-ग़म-ए-गर्दिश-ए-अय्याम न लेते हम हैं वो बला दोस्त कि गुलशन का तो क्या ज़िक्र जन्नत भी बजाए क़फ़स ओ दाम न लेते ख़ामोश भी रहते तो शिकायत ही ठहरती दिल दे के कहाँ तक कोई इल्ज़ाम न लेते अल्लाह रे मिरे दिल की नज़ाकत का तक़ाज़ा तासीर-ए-मोहब्बत से भी हम काम न लेते तेरी ही रज़ा और थी वर्ना तिरे बिस्मिल तलवार के साए में भी आराम न लेते इक जब्र है ये ज़िंदगी इश्क़ कि 'फ़ानी' हम मुफ़्त भी ये ऐश-ए-ग़म-अंजाम न लेते