कुछ बे-नाम तअल्लुक़ जिन को नाम अच्छा सा देने में मैं तो सारी बिखर गई हूँ घर को इकट्ठा रखने में दायरा मनफ़ी मुसबत का तो अपनी जगह मुकम्मल है कोई बर्क़ी-रौ दौड़ा दे इस बे-जान से नाते में कौन एहसास की लौ बख़्शेगा रूखे-फीके मंज़र को कौन पिरोएगा जज़्बों के मोती हर्फ़ के धागे में ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते लोग तो पारा पारा हो कर जुड़ जाते हैं लम्हे में रंज की इक बे-मौसम टहनी दिल से यूँ पैवस्ता है पूरी शाख़ हरी हो जाए एक सिरा छू लेने में ऊपर से ख़ामोशी ओढ़ के फिरते हैं जो लोग वही धज्जी धज्जी फिरते हैं अंदर के पागल-ख़ाने में सैलाबों की रेत से जिस को तू ने अबस नमनाक किया धीरे बहता इक दरिया बन उस सहरा के सीने में बारिश एक पड़े तो बाहर आपे से हो जाती है जिस मख़्लूक़ ने आँखें खोलीं धरती के तह-ख़ाने में