कुछ भी कहो सब अपनी अनाओं पे अड़े हैं सब लोग यहाँ सूरत-ए-असनाम खड़े हैं जो पार उतरता गया होता गया कम-तर हम दूरी-ए-मंज़िल के तुफ़ैल आज बड़े हैं हम को न कहो क़ाने-ए-हालात कि हम लोग ज़िंदानी-ए-दहलीज़ के मंसब पे खड़े हैं ऐ वस्ल-नसीबो! हमें मुड़ कर भी न देखा हम क़ुफ़्ल के मानिंद मसाइब पे पड़े हैं तारीख़-ए-ज़मीं बख़्त-कुशा होने लगी तो खुलता गया हम वक़्त से बे-कार लड़े हैं उजलत के अलाव में किए फ़ैसले 'आबिद' अब सोच की बर्फ़ानी खड़ाऊँ पे खड़े हैं