कुछ बुझी बुझी सी है अंजुमन न जाने क्यूँ

कुछ बुझी बुझी सी है अंजुमन न जाने क्यूँ
ज़िंदगी में पिन्हाँ है इक चुभन न जाने क्यूँ

और भी बहुत से हैं लूटने को दुनिया में
बन गए हैं रहबर ही राह ज़न न जाने क्यूँ

उन की फ़िक्र-ए-आला पर लोग सर को धुनते थे
आज वो परेशाँ हैं अहल-ए-फ़न न जाने क्यूँ

जिस चमन में सदियों से था बहार का क़ब्ज़ा
उस में है ख़िज़ाओं का अब चलन न जाने क्यूँ

जिन गुलों से काँटे ख़ुद दूर बच के रहते थे
चाक चाक हैं उन के पैरहन न जाने क्यूँ

ग़ैर कुछ तो करते हैं पास और लिहाज़ अपना
और दोस्त होते हैं ख़ंदा-ज़न न जाने क्यूँ

ग़ुंचे ग़ुंचे के तेवर गुलसिताँ में बदले हैं
हम चमन में रह कर हैं बे-चमन न जाने क्यूँ

जिन को अपना समझे थे करते हैं 'कँवल' हम से
दोस्ती के पर्दे में मक्र ओ फ़न न जाने क्यूँ


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