कुछ हर्फ़ ओ सुख़न पहले तो अख़बार में आया फिर इश्क़ मिरा कूचा ओ बाज़ार में आया अब आख़िर-ए-शब दर्द का भटका हुआ रहवार आया भी तो शहर-ए-लब-ओ-रुख़्सार में आया क्या नक़्श हुआ दिल के अंधेरे में नुमूदार क्या रोज़न-ए-रौशन मिरी दीवार में आया हैराँ हूँ कि फिर उस ने न की सब्र की ताकीद बाज़ू जो मिरा बाज़ू-ए-दिलदार में आया ये आइना-गुफ़्तार कोई और है मुझ में सोचा भी न था मैं ने जो इज़हार में आया हासिल न हुआ मुझ को वो महताब तो माबूद क्या फ़र्क़ तिरे साबित ओ सय्यार में आया