कुछ इस अदा से हमें ग़म-गुसार मिलते हैं हज़ार ज़ख़्म पस-ए-ए'तिबार मिलते हैं शब-ए-फ़िराक़ की वहशत न पूछिए हम से हम अपने हिज्र से दीवाना-वार मिलते हैं ये शहर-ए-ज़ख़्म-फ़रोशां है हाए क्या कीजे कि पा-ए-गुल भी यहाँ ख़ार ख़ार मिलते हैं वो जिन की कोख में शौक़-ए-ख़िरद पनपता है वो वलवले भी जुनूँ का शिकार मिलते हैं सजा के रखते हैं जिन को चमक की ख़्वाहिश में वो आइने भी हमें दाग़-दार मिलते हैं हमें उन्ही से तवक़्क़ो' है 'नाज़' मंज़िल की जो रास्ते हमें बन कर ग़ुबार मिलते हैं