कुछ इस तरह से ज़माने पे छाना चाहता है वो आफ़्ताब पे पहरे बिठाना चाहता है तअ'ल्लुक़ात के धागे तो कब के टूट चुके मगर ये दिल है कि फिर आना जाना चाहता है जो क़तरा क़तरा इकट्ठा हुआ था आँखों में वो ख़ून अब मिरी पलकों पे आना चाहता है चटख़ रहा है जो रह रह के मेरे सीने में वो मुझ में कौन है जो टूट जाना चाहता है अमीर-ए-शहर तिरी बंदिशें मआज़-अल्लाह फ़क़ीर अब तिरी बस्ती से जाना चाहता है ये ख़्वाहिशात का पंछी अजीब है हर रोज़ नई फ़ज़ाएँ नया आब-ओ-दाना चाहता है उदासी झाँकने लगती है उस की आँखों से वो शख़्स जब भी कभी मुस्कुराना चाहता है