कुछ लोग जो सवार हैं काग़ज़ की नाव पर तोहमत तराशते हैं हवा के दबाव पर मौसम है सर्द-मेहर लहू है जमाव पर चौपाल चुप है भीड़ लगी है अलाव पर सब चाँदनी से ख़ुश हैं किसी को ख़बर नहीं फाहा है माहताब का गर्दूं के घाव पर अब वो किसी बिसात की फ़ेहरिस्त में नहीं जिन मनचलों ने जान लगा दी थी दाव पर सूरज के सामने हैं नए दिन के मरहले अब रात जा चुकी है गुज़िश्ता पड़ाव पर गुल-दान पर है नरम सवेरे की ज़र्द धूप हल्क़ा बना है काँपती किरनों का घाव पर यूँ ख़ुद-फ़रेबियों में सफ़र हो रहा है तय बैठे हैं पुल पे और नज़र है बहाव पर मौसम से साज़ ग़ैरत-ए-गुलशन से बे-नियाज़ हैरत है मुझ को अपने चमन के सुभाव पर क्या दौर है कि मरहम-ए-ज़ंगार की जगह अब चारा-गर शराब छिड़कते हैं घाव पर ताजिर यहाँ अगर हैं यही ग़ैरत-ए-यहूद पानी बिकेगा ख़ून-ए-शहीदाँ के भाव पर पहले कभी रिवाज बनी थी न बे-हिसी नादिम बिगाड़ पर हैं न ख़ुश में बनाव पर हर रंग से पयाम उतरते हैं रूह में पड़ती है जब निगाह धनक के झुकाव पर 'दानिश' मिरे शरीक-ए-सफ़र हैं वो कज-मिज़ाज साहिल ने जिन को फेंक दिया है बहाव पर