कुछ नक़्श हुवैदा हैं ख़यालों की डगर से शायद कभी गुज़रा हूँ मैं इस राह-गुज़र से गलियाँ भी हैं सुनसान दरीचे भी हैं ख़ामोश क़दमों की ये आवाज़ दर आई है किधर से ताक़ों में चराग़ों का धुआँ जम सा गया है अब हम भी निकलते नहीं उजड़े हुए घर से क्यूँ काग़ज़ी फूलों से सजाता नहीं घर को इस दौर को शिकवा है मिरे ज़ौक़-ए-हुनर से साए की तरह कोई तआ'क़ुब में रवाँ है अब बच के कहाँ जाएँगे इक शो'बदा-गर से 'अख़्तर' ये घने अब्र बड़े तंग-नज़र हैं उठ्ठे हैं जो दरिया से तो दरिया पे ही बरसे