कुछ सोच के इज़हार-ए-ख़यालात न करना हर बात को सुनना वो तिरा बात न करना ऐसा न हो दर-अस्ल तुम्हें अपना समझ लें इस दर्जा ग़रीबों की मुदारात न करना है फ़र्क़ मरातिब के लिए सारा ज़माना मयख़ाने में तौहीन-ए-मुसावात न करना इक फ़र्ज़ है ताज़ीम-ए-रवायात ब-हर-तौर इक फ़र्ज़ है तरमीम-ए-रिवायात न करना पैमाना-ब-कफ़ जब हो जवानी की हिकायत इस बाब में संजीदा सवालात न करना इक बार तवज्जोह से कोई बात तो सुन लो फिर चाहे कभी हम से मुलाक़ात न करना आसान है जाँ देना किसी बात पे 'नूरी' दुश्वार है इज़हार-ए-ख़यालात न करना