कुछ वोट कमाने की ख़ातिर क्या ख़ून बहाना लाज़िम है जब बात अम्न की हो हर सू क्या बात बढ़ाना लाज़िम है तुम अहल-ए-सियासत क्या जानो हम अहल-ए-क़लम के जज़्बों को जो ख़ून-ए-जिगर से लिख दें तो सब का घबराना लाज़िम है अख़बार तो झूटे हैं अक्सर ये हम को क्या समझाएँगे कब किस को उठाना बेहतर है कब किस को गिराना लाज़िम है बातों का ज़माना ख़त्म हुआ हाथों का ज़माना आया है दिल आज हमारा कहता है कुछ कर के दिखाना लाज़िम है दीवार उठा कर मज़हब की नेता ने कुर्सी पाई है फिर अहल-ए-वतन ने माना है दीवार गिराना लाज़िम है