कूचा कूचा भटक रहा हूँ मैं आसमानों को तक रहा हूँ मैं जबकि वा'दा है मुश्क-ओ-‘अम्बर का रोटियाँ क्यों लपक रहा हूँ मैं इस मुक़र्रिर पे मेरा साया है गुफ़्तुगू में झलक रहा हूँ मैं उस ने पूछा है ख़त में हाल मिरा फ़ितरतन फिर झिझक रहा हूँ मैं दश्त में चार दिन गुज़ारे हैं जुगनूओं सा दमक रहा हूँ मैं कौन पूछेगा मुझ को मेरे बा'द किस की ख़ातिर ये थक रहा हूँ मैं ये जो मैं मुस्कुरा के मिलता हूँ अपने गिर्या को ढक रहा हूँ मैं 'दाग़' कहते थे क्या ग़ज़ल प्यारी और मिसरों में बक रहा हूँ मैं