कुछ भी न जब दिखाई दे तब देखता हूँ मैं फिर भी ये ख़ौफ़ सा है कि सब देखता हूँ मैं आँखें तुम्हारे हाथ पे रख कर मैं चल दिया अब तुम पे मुनहसिर है कि कब देखता हूँ मैं आहट अक़ब से आई और आगे निकल गई जो पहले देखना था वो अब देखता हूँ मैं ये वक़्त भी बताता है आदाब-ए-वक़्त भी इस टूटते सितारे को जब देखता हूँ मैं अब याँ से कौन दे मिरी चश्म-ए-तलब को दाद जिस फ़ासले से बाब-ए-तलब देखता हूँ मैं इन पुतलियों का क़र्ज़ चुकाता हूँ क्या करूँ बस दिल से दिल मिलाता हूँ जब देखता हूँ मैं नाकाम-ए-इश्क़ हूँ सो मिरा देखना भी देख कम देखता हूँ और ग़ज़ब देखता हूँ मैं