कुछ दिनों क़ाएम रहे ऐ मह-जबीं इतनी नहीं जिस नहीं का डर है वो तेरी नहीं इतनी नहीं वो ये कहते हैं झटक कर मेरे दस्त-ए-शौक़ को तेरे हाथ आए हमारी आस्तीं इतनी नहीं मुझ से क्या बातें बनाते हो मुझे मा'लूम है लूट ले दिल को निगाह-ए-शर्मगीं इतनी नहीं ख़ाक पर गिर कर किसी दिन ख़ाक में मिल जाएगा बाँध रक्खे दिल को ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं इतनी नहीं 'नूह' हम इस बहर में कुछ और लिखते चंद शेर क्या मज़ामीं को हो गुंजाइश ज़मीं इतनी नहीं