कुछ नहीं गरचे तिरी राहगुज़र से आगे देखना कुफ़्र नहीं हद्द-ए-नज़र से आगे ख़ुद-फ़रेबी के लिए गर्म-ए-सफ़र हैं वर्ना क्या है मंज़िल के सिवा गर्द-ए-सफ़र से आगे मेरा अफ़्लाक भी तस्कीन-ए-नज़र हो न सका थे वही शम्स-ओ-क़मर शम्स-ओ-क़मर से आगे ज़िंदगी वक़्त की दीवारों में महबूस रही कोई पर्दा न उठा शाम-ओ-सहर से आगे आज के दौर का दावा है कि अन्क़ा के सिवा कोई उक़्दा नहीं इरफ़ान-ए-बशर से आगे क़तरे क़तरे को तरसते रहे सहरा 'फ़ारिग़' झूम कर उठ्ठे भी बादल तो वो बरसे आगे