कुछ साए से हर लहज़ा किसी सम्त रवाँ हैं इस शहर में वर्ना न मकीं हैं न मकाँ हैं हम ख़ुद से जुदा हो के तुझे ढूँडने निकले बिखरे हैं अब ऐसे कि यहाँ हैं न वहाँ हैं जाती हैं तिरे घर को सभी शहर की सड़कें लगता है कि सब लोग तिरी सम्त रवाँ हैं ऐ मौज-ए-आवारा कभी हम से भी टकरा इक उम्र से हम भी सर-ए-साहिल निगराँ हैं तो ढूँढ हमें वक़्त की दीवार के उस पार हम दूर बहुत दूर की मंज़िल का निशाँ हैं सिमटे थे कभी हम तो समाए सर-ए-मिज़्गाँ फैले हैं अब ऐसे कि कराँ-ता-ब-कराँ हैं इक दिन तिरे आँचल की हवा बन के उड़े थे उस दिन से ज़माने की निगाहों से निहाँ हैं तोड़ो न हमारे लिए आवाज़ का आहंग हम लोग तो इक डूबते लम्हे की फ़ुग़ाँ हैं