कुछ तुम से शिकायत थी न दुनिया से गिला था मैं यूँही ज़रा देर को ख़ामोश हुआ था वो उम्र-ए-गुरेज़ाँ हो कि हो तेरा तसव्वुर साए की तरह साथ मिरे कोई लगा था क्या जानिए किस वास्ते मस्लूब हुआ हूँ दुनिया में तो बहुतों ने तिरा नाम लिया था आ जाते न गर सामने दरिया के किनारे मैं हिज्र-ए-मुसलसल को तिरे भूल चला था वो वक़्त भी गुज़रा है कि जिद्दत के जुनूँ में मैं अपनी नवाओं का गला घोंट रहा था सब भूल चुका मैं तो तिरी याद का आलम ये याद है इक बुलबुला पानी से उठा था क्या वो भी 'सबा' मुझ को न पहचान सकेगा हैरत से जो आईना मुझे देख रहा था