कुदूरत बढ़ के आख़िर को निकलती है फ़ुग़ाँ हो कर ज़मीं ये सर पर आ जाती है इक दिन आसमाँ हो कर मिरे नक़्श-ए-क़दम ने राह में काँटे बिछाए हैं बताएँ तो वो घर ग़ैरों के जाएँगे कहाँ हो कर ख़ुदा से सर-कशी की पीर-ए-ज़ाहिद इस क़दर तू ने कि तेरा तीर सा क़द हो गया है अब कमाँ हो कर कोई पूछे कि मय्यत का भी तुम कुछ साथ देते हो ये आए मर्सिया ले कर वो आए नौहा-ख़्वाँ हो कर इरादा पीर-ए-ज़ाहिद से है अब तुर्की-ब-तुर्की का किसी भट्टी पे जा बैठूँगा मैं पीर-ए-मुग़ाँ हो कर तलाश-ए-यार क्या और सैर क्या ऐ हम-नशीं हम तो चले और घर चले आए यहाँ हो कर वहाँ हो कर 'सुख़न' की बज़्म में 'नादिर' उसी के सर पे सेहरा है रहा जो हम-नवा-ए-बुलबुल-ए-हिन्दोस्ताँ हो कर