कूफ़े के क़रीब हो गया है लाहौर अजीब हो गया है हर दोस्त है मेरे ख़ूँ का प्यासा हर दोस्त रक़ीब हो गया है हर आँख की ज़ुल्मतों से यारी हर ज़ेहन मुहीब हो गया है क्या हँसता हँसाता शहर यारो हासिद का नसीब हो गया है फैला था मसीह-ए-वक़्त बन कर सिमटा तो सलीब हो गया है काग़ज़ पे उगल रहा है नफ़रत कम-ज़र्फ़ अदीब हो गया है इस शहर के दिल नहीं है 'ज़ुल्फ़ी' ये शहर ग़रीब हो गया है