कुंज-ए-तन्हाई के अफ़्कार में क्या रक्खा है ज़िक्र-ए-ज़ुल्फ़-ओ-लब-ओ-रुख़्सार में क्या रक्खा है ऐ ग़म-ए-ज़ीस्त तिरा साथ ग़नीमत है मुझे वर्ना अब सिर्फ़ ग़म-ए-यार में क्या रक्खा है पहले ही खुल गया इंकार से महफ़िल का भरम और अब आप के इक़रार में क्या रक्खा है मर्हबा अज़्म-ए-जवाँ ले के निकलने वालो इस जहाँ के रसन-ओ-दार में क्या रक्खा है अपने जब हो न सके ग़ैर की हम सम्त चले वर्ना इस कूचा-ए-अग़्यार में क्या रक्खा है कल तलक आप के क़ाबिल था यही दिल 'साबिर' हाँ मगर इक दिल-ए-बीमार में क्या रक्खा है