क्या बात है कि बात ही दिल की अदा न हो मतलब का मेरे जैसे कोई क़ाफ़िया न हो गुल-दान में सजा के हैं हम लोग कितने ख़ुश वो शाख़ एक फूल भी जिस पर नया न हो हर लम्हा वक़्त का है बस इक ग़ुंचा-ए-बख़ील मुट्ठी जो अपनी बंद कभी खोलता न हो अब लोग अपने आप को पहचानते नहीं पेश-ए-निगाह जैसे कोई आईना न हो वहशी हवा की रूह थी दीवार-ओ-दर में रात जंगल की सम्त कोई दरीचा खुला न हो