क्या बात थी कि उस को सँवरने नहीं दिया आईना हाथ में था निखरने नहीं दिया तूफ़ान में फँसे तो किनारे तक आ गए साहिल ने उन को फिर भी उभरने नहीं दिया इस दौर-ए-पुर-फ़ितन में सलीक़े से टूट कर टूटे तो रोज़ ही पे बिखरने नहीं दिया हम ने अमीर-ए-शहर को सज्दा नहीं किया ख़ुद्दारी-ए-मिज़ाज ने गिरने नहीं दिया रद्द-ओ-क़दह के बअ'द 'वसीया' ने आज भी मेआर से ग़ज़ल को उतरने नहीं दिया