क्या बताऊँ बे-तिरे कैसा रहा ये समझ मर मर के मैं जीता रहा चौदहवीं की रात में निकला जो चाँद मुझ को पहरों आप का धोका रहा भूल कर भी तुम को कुछ आया न ध्यान मरने वाला मर गया जीता रहा किस लिए औरों से हो तुम पूछते देख लो अब आ के मुझ में क्या रहा जी गया तो मैं ये समझा जी गया जीते जी का रोग था जाता रहा क्या लगाया हाथ धड़ से आप ने पाँव पर सर कट के धड़ से आ रहा रख गए दो फूल मेरे ढेर पर मर गए पर बोझ ये उन का रहा मैं ही इक काँटा था सो मैं भी नहीं सच है अब किस का उन्हें खटका रहा