क्या दिलकशी है अंजुम-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-माह में ऐसे न जाने कितने हैं इस जल्वा-गाह में जन्नत ख़याल में है न दुनिया निगाह में क्या लज़्ज़तें मिली हैं ग़म-ए-बे-पनाह में दिल को रहे शुऊ'र जो हाल-ए-तबाह में मेराज-ए-ज़िंदगी है ग़म-ए-बे-पनाह में क्या जाने क्या असर था किसी की निगाह में सौ हुस्न आ गए मिरे हाल-ए-तबाह में मुझ से निगाह फेर के क्यों जा रहे हो तुम मेरी तो ज़िंदगी है तुम्हारी निगाह में मेआ'र-ए-बंदगी-ए-बशर ही बदल दिया कुछ रिंद आ गए थे किसी ख़ानक़ाह में रहमत को भी मुआविन-ए-ग़फ़लत बना दिया यूँ भी कोई न आए फ़रेब-ए-गुनाह में ईमान और कुफ़्र का झगड़ा ही खो दिया वो जब कभी समाए किसी की निगाह में तेरी नज़र की ख़ैर हो कितने ही आइने टूटे हुए पड़े हैं मोहब्बत की राह में हम दोनों महव-ए-शौक़ में लेकिन मआल-ए-शौक़ उन की निगाह में है न मेरी निगाह में ऐसे अदब से देख रहे हैं वो आइना हाज़िर हो जैसे कोई किसी बारगाह में पैग़म्बरी रज़ा-ए-इलाही है वर्ना 'कैफ़' याक़ूब देख सकते थे यूसुफ़ को चाह में