क्या ग़म के साथ हम जिएँ और क्या ख़ुशी के साथ जो दिल को दे सुकून गुज़र हो उसी के साथ काग़ज़ की नाव मेरी पलट कर न आ सकी बचपन में मेरा दिल भी बहा था उसी के साथ आँखों के सोते ख़ुश्क हुए रौशनी गई लेकिन नज़र का रिश्ता वही है नमी के साथ क्या मौत ही इलाज है ग़म से नजात का क्यों ज़िंदगी की बनने लगी ख़ुद-कुशी के साथ लोगों को क्या पड़ी है जो पूछें किसी से हाल हर आदमी मगन है ग़म-ए-ज़िंदगी के साथ जिन के नसीब में नहीं दुनिया की राहतें देखो तो कैसे जीते हैं वो हर कमी के साथ मजबूरों बेकसों की यहाँ फ़िक्र है किसे बे-मौत कितने मरते हैं फ़ाक़ा-कशी के साथ फ़ुर्सत है किस के पास जो सोचे ये बैठ कर किस की बनी किसी से या बिगड़ी किसी के साथ रिश्तों की भीड़ में जो मैं साबित-क़दम रही दिल के तमाम जब्र सहे ख़ुश-दिली के साथ लाएँ कहाँ से ढूँड के अपना कहें जिसे रस्ते तके हैं हम ने भी आशुफ़्तगी के साथ 'शहनाज़' अपने लहजे में नर्मी ख़ुलूस रख कर बात हर किसी से बहुत आजिज़ी के साथ