क्या जाने कहाँ बहर-ए-उल्फ़त का किनारा है हर मौज के सीने में कश्ती को उतारा है अब आह रुके क्यूँकर अब अश्क थमें कैसे चलती हुई आँधी है बहता हुआ धारा तूफ़ान तदब्बुर है गहराई तदब्बुर की मैं ने तह-ए-दरिया से साहिल को उभारा है परवाने चराग़ों पर गिरने लगे मस्ती में ये महफ़िल-ए-हस्ती में कौन अंजुमन-आरा है सब साज़ के हामिल हैं नग़्मा हो कि नाला हो नाला भी गवारा कर नग़्मा जो गवारा है 'मख़मूर' को जीने दो आँखों ही से पीने दो ये बादा-कश-ए-उल्फ़त नज़रों ही का मारा है