क्या ज़मीं क्या आसमाँ कुछ भी नहीं हम न हों तो ये जहाँ कुछ भी नहीं दीदा-ओ-दिल की रिफ़ाक़त के बग़ैर फ़स्ल-ए-गुल हो या ख़िज़ाँ कुछ भी नहीं पत्थरों में हम भी पत्थर हो गए अब ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ कुछ भी नहीं क्या क़यामत है कि अपने देस में ए'तिबार-ए-जिस्म-ओ-जाँ कुछ भी नहीं कैसे कैसे सर-कशीदा लोग थे जिन का अब नाम-ओ-निशाँ कुछ भी नहीं एक एहसास-ए-मोहब्बत के सिवा हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ कुछ भी नहीं कोई मौज़ू-ए-सुख़न ही जब न हो सिर्फ़ अंदाज़-ए-बयाँ कुछ भी नहीं