क्या ज़रूरी है कि बस शोर-ओ-शग़ब में रहा जाए भीड़ के साथ चलें और अक़ब में रहा जाए मुझ में दरिया मिरा क्यों जोश पे अब आता नहीं कब तलक सब्र से गिर्दाब-ए-अदब में रहा जाए कोई तदबीर कि ये दश्त भी हो बाग़-ए-जिनाँ कुछ तो इस ख़ाक के भी ख़ैर तलब में रहा जाए कोई ग़ौग़ा ही उठा चाहिए वीराना-ए-शब हब्स ये टूटे कुछ इस फ़िक्र-ए-नक़ब में रहा जाए इक ज़रा अपने कुएँ से कभी बाहर को जिएँ इक ज़रा औरों के भी दर्द-ओ-तअब में रहा जाए सोचता हूँ नया आबाद करूँ क़र्या-ए-इश्क़ और फिर शान से इस शहर-ए-अजब में रहा जाए क़र्ज़ मिट्टी का कभी यूँ अदा कर जाएँ 'शमीम' गीत बन कर के हर इक ग़ुंचा-ए-लब में रहा जाए