क्या कहें आतिश-ए-हिज्राँ से गले जाते हैं छातियाँ सुलगें हैं ऐसी कि जले जाते हैं गौहर-ए-गोश किसू का नहीं जी से जाता आँसू मोती से मिरे मुँह पे ढले जाते हैं यही मसदूद है कुछ राह-ए-वफ़ा वर्ना बहम सब कहीं नामा ओ पैग़ाम चले जाते हैं बार-ए-हिरमान-ओ-गुल-ओ-दाग़ नहीं अपने साथ शजर-ए-बाग़-ए-वफ़ा फूले फले जाते हैं हैरत-ए-इश्क़ में तस्वीर से रफ़्ता ही रहे ऐसे जाते हैं जो हम भी तो भले जाते हैं हिज्र की कोफ़्त जो खींचे हैं उन्हीं से पूछो दिल दिए जाते हैं जी अपने मले जाते हैं याद-ए-क़द में तिरे आँखों से बहें हैं जुएँ गर किसू बाग़ में हम सर्व तले जाते हैं देखें पेश आवे है क्या इश्क़ में अब तो जूँ सैल हम भी इस राह में सर गाड़े चले जाते हैं पुर-ग़ुबारी-ए-जहाँ से नहीं सुध 'मीर' हमें गर्द इतनी है कि मिट्टी में रुले जाते हैं