क्या कहिए रू-ए-हुस्न पे आलम नक़ाब का मुँह पर लिया है महर ने दामन सहाब का तस्वीर मैं ने माँगी थी शोख़ी तो देखिए इक फूल उस ने भेज दिया है गुलाब का अब क्या सुनाएँ टूटे हुए दिल की दास्ताँ आहंग बे-मज़ा है शिकस्ता रुबाब का इतने फ़रेब खाए हैं दिल ने कि अब मुझे होता है जू-ए-आब पे धोका सराब का तुम चाँदनी हो फूल हो नग़्मा हो शेर हो अल्लाह-रे हुस्न-ए-ज़ौक़ मिरे इंतिख़ाब का अल्लाह बोलते नहीं तो मुस्कुरा ही दो मैं कब से मुंतज़िर हूँ तुम्हारे जवाब का सब वाक़िआत हैं मगर अल्लाह-रे इंक़लाब आज उन पे है गुमाँ कसी रंगीन ख़्वाब का