क्या कहूँ कैसा सितम ग़फ़लत से मुझ पर हो गया क़ाफ़िला जाता रहा मैं सुब्ह होते सो गया बे-कसी मुद्दत तलक बरसा की अपनी गोर पर जो हमारी ख़ाक पर से हो के गुज़रा रो गया कुछ ख़तरनाकी तरीक़-ए-इश्क़ में पिन्हाँ नहीं खप गया वो राह-रौ इस राह हो कर जो गया मुद्दआ' जो है सो वो पाया नहीं जाता कहीं एक आलम जुस्तुजू में जी को अपने खो गया 'मीर' हर-यक मौज में है ज़ुल्फ़ ही का सा दिमाग़ जब से वो दरिया पे आ कर बाल अपने धो गया